नव वर्ष के उपलक्ष्य में मै और मेरे मित्र अमित रतूडी ने वर्षों से उपेक्षित एवं अंतर्मन को शांति प्रदान करने वाला स्थान बूढा केदार जाने का फैसला किया।
हमलोग सुबह 8 बजे तैयार होकर निकल पड़े मंजिल की ओर। देव संस्कृति विश्वविद्यालय हरिद्वार से दूरी लगभग 250 किमी थी, लेकिन मन में जो ठान लिया वह करना ही था इसीलिए हमलोग दोपहिया वाहन स्कुटी से ऋषिकेश,नरेन्द्र नगर, चम्बा, टिहरी, घनसाली होते हुए बूढा केदार पहुंचे। उस ठंड के समय सुबह जब मै निकला तो मन काफी हर्षित और उत्साहित था मन में सिर्फ एक ही बात चल रही थी कि वह स्थान कैसा होगा जहां हम जा रहे हैं आज कुछ नया सीखने को मिलेगा, नये-नये लोग मिलेंगे, नये-नये अनुभवो को अपने अंदर समेटने की ललक को लेकर चल पङा था। ठंड काफी थी तो सर्वप्रथम नरेन्द्र नगर में रुककर चाय पी फिर यात्रा प्रारम्भ की वहाँ के टेढे-मेढे रास्ते काफी डरा रहे थे लेकिन मन की उत्सुकता के कारण वह डर भी धीरे-धीरे हमारे अंतर्मन से जाता रहा। जब हमारे हाथों ने काम करना बंद कर दिया तो कुंजापुरी के पास रुककर अपने हाथों को आग से सेंककर चल दिए मंजिल की ओर। चलते-चलते काफी समय हो गया था और हमें भूख भी सताने लगी थी तो हमलोग ने चम्बा में रुककर खाना खाया और वहीं एक बुजुर्ग से बूढा केदार जाने का रास्ता पुछा तो उन्होने भली-भांति रास्ता बताया और हमलोग ने उन्हे धन्यवाद कहकर अपनी यात्रा प्रारम्भ किया।हमें नई टिहरी होते हुए जाना था तो हमने सोंचा कि क्यों न टिहरी डैम भी घूम लें लेकिन बाद में पता चला कि वह रास्ता डैम होकर ही जाता था।
आगे की यात्रा हमने प्रारम्भ की टिहरी डैम की पथरीली सड़कों, पहाड़ो से और वहाँ से होते हुए घनसाली की ओर चल दिये। वहां के टेढे-मेढे रास्तो ने काफी डराया मगर मन के उत्साह के कारण वह डर भी जाता रहा । ऐसा लगा मानो पहाड़ मुझसे यह कह रहा हो कि तुम डरो मत मैं तुम्हारे साथ हूं। मेरी यह पहाड़ो की प्रथम यात्रा थी तो मन में काफी सवाल उठ रहे थे और उन सवालो का जवाब कहीं नही दिख रहा था। ऐसा लग रहा था कि पहाड़ मुझसे कुछ कहना चाह रहा हो और वह मुझसे कह नही पा रहा हो। हरे भरे पेड़ो के बीच में बनी सड़क एक अलग ही खूबसूरती की आभा बिखेर रही थी। दूर कहीं मंदिर की घंटी मानो जैसे मुझे पुकार रही हो । कल-कल बहती निर्मल गंगा की मीठी धुन अति प्रिय लग रही थी।
अभी दिन के 2 बजे थे ठंड काफी थी और हमें लगभग 80-90 किमी का सफर तय करना बाकी था । गाड़ी खाली सड़को पर सरपट भाग रही थी हमें सिर्फ इस बात की चिन्ता थी कि हरिद्वार रात तक पहुंच जाना है। चलते चलते काफी वक्त बीत गया तो कुछ खाने की सूझी, वहाँ आसपास कोई दुकान भी नजर नही आ रहा थी। आगे पूछने पर पता चला कि एक किलोमीटर दूर एक दुकान है, भूख भी लगने लगी थी तो सोचा कि यह एक किलोमीटर क्या है बस युं ही गुजर जाएगा लेकिन आगे जाने पर पता चला कि सड़कें काफी बिगड़ी थीं जिसके कारण पैदल चलने में भी काफी परेशानी का सामना करना पड़ रहा था। जैसे तैसे कठिन सड़कों के बीच बड़ी मुश्किल से गाड़ी को लेकर चल दिया। तब मुझे अहसास हुआ कि पहाड़ पर रहने वाले लोग कितनी मुश्किल झेलते हैं। यहाँ संसाधनों की कमी के बावजूद किस प्रकार अपना गुजारा करते हैं। हम एक दिन के लिए घूमने आते हैं तो कितनी समस्याओं का सामना करना पड़ता है तो ये लोग किस प्रकार अपना गुजारा करते होंगे। इन सभी बातों को लेकर थोड़ा परेशान हुआ था लेकिन यह परेशानी कुछ ही देर में दूर हो गयी और मन को यात्रा की ओर लगाया, काफी चलने के बाद हम घनसाली पहुँचे। अभी भी हम वहां से लगभग मंजिल से 30 किमी दूर थे। घनसाली पहुंचने तक हमें शाम के 4:30 बज चुके थे और हमें वापस भी पहुंचना था। हमलोग अब जल्दी-जल्दी चलने लगे और लगभग 5:30 बजे पहुंच गये। वहां पहुंचकर बहुत ही आनंदित अनुभूति का एहसास हुआ मानो कि स्वर्ग के रास्ते में पहुंच गया हूँ। दोनों तरफ कल कल बहती नदियां मन को आनंदित कर रही थी। वहां पहुंचकर आनंद की पराकाष्ठा को पार कर चुका था।
बूढा केदार का इतिहास
बूढा केदारनाथ धाम जिसका पुराणो में अत्यधिक मह्त्व बताया गया है। इन चारों पवित्र धाम के मध्य वृद्धकेदारेश्वर धाम की यात्रा आवश्यक मानी गई है, फलतः प्राचीन समय से तीर्थाटन पर निकले यात्री श्री बूढ़ा केदारनाथ के दर्शन अवश्य करते रहे हैं। श्रीबूढ़ा केदारनाथ के दर्शन से अभीष्ट फल की प्राप्ति होती है। यह भूमि बालखिल्या पर्वत और वारणावत पर्वत की परिधि में स्थित सिद्धकूट, धर्मकूट, यक्षकूट और अप्सरागिरी पर्वत श्रेणियों की गोद में भव्य बालगंगा और धर्मगंगा के संगम पर स्थित है। प्राचीन समय में यह स्थल पांच नदियों क्रमशः बालगंगा, धर्मगंगा, शिवगंगा, मेनकागंगा व मट्टानगंगा के संगम पर था। सिद्धकूट पर्वत पर सिद्धपीठ ज्वालामुखी का भव्य मन्दिर है। धर्मकूट पर महासरताल एवं उत्तर में सहस्रताल एवं कुशकल्याणी, क्यारखी बुग्याल है। श्री बूढ़ा केदारनाथ से महासरताल, सहस्र्ताल, मंज्याडाताल, जरालताल, बालखिल्याश्रम भृगुवन तथा विनकखाल सिध्दपीठ ज्वालामुखी भैरवचट्टी हटकुणी होते हुऐ त्रिजुगीनारायण केदारनाथ की पैदल यात्रा की जाती है। स्कन्द पुराण के केदारखंड में सोमेश्वर महादेव के रूप में वर्णित भगवान बूढ़ा केदार के बारे में मान्यता है कि गोत्रहत्या के पाप से मुक्ति पाने हेतु पांडव इसी भूमि से स्वर्गारोहण हेतु हिमालय की ओर गये तो भगवान शंकर के दर्शन बूढे ब्राहमण के रूप में बालगंगा-धर्मगंगा के संगम पर यहीं हुऐ और दर्शन देकर भगवान शंकर शिला रूप में अन्तर्धान हो गये। वृद्ध ब्राहमण के रूप में दर्शन देने पर सदाशिव भोलेनाथ बृध्दकेदारेश्वर या बूढ़ाकेदारनाथ कहलाए।
श्री बूढ़ाकेदारनाथ मन्दिर के गर्भगृह में विशाल लिंगाकार फैलाव वाले पाषाण पर भगवान शंकर की मूर्ती, लिंग, श्रीगणेश जी एवं पांचो पांडवों सहित द्रोपती के प्राचीन चित्र उकेरे हुए हैं। बगल में भू शक्ति, आकाश शक्ति व पाताल शक्ति के रूप में विशाल त्रिशूल विराजमान है। साथ ही कैलापीर देवता का स्थान एक लिंगाकार प्रस्तर के रूप में है। बगल वाली कोठरी पर आदि शक्ति महामाया दुर्गाजी की पाषाण मूर्ती विराजमान है। यहीं पर नाथ सम्प्रदाय का पीर बैठता है, जिसके शरीर पर हरियाली पैदा की जाती है। बाह्य कमरे में भगवान गरुड की मूर्ती तथा बाहर मैदान में स्वर्गीय नाथ पुजारियों की समाधियां हैं। केदारखंड में थाती गांव को मणिपुर की संज्ञा दी गयी है। जहां पर टिहरी नरेशों की आराध्य देवी राजराजेश्वरी प्राचीन मन्दिर व उत्तर में विशाल पीपल के वृक्ष के नीचे छोटा शिवालय है जहां माघ व श्रावण रुद्राभिषेक होता है। जबकि आदिशक्ति व सिध्दपीठ मां राजराजेश्वरी एवं कैलापीर की पूजा व्यवस्था टिहरी नरेश द्वारा बसाये गये सेमवाल जाति के लोग करते हैं। बूढ़ाकेदार पवित्र तीर्थस्थल होने के साथ साथ एक सुरम्य स्थल भी है। गांव के दोनो ओर से पवित्र जल धाऱायें बालगंगा व धर्मगंगा के रूप में प्रवाहित होती है। यह इलाका अपनी सुरम्यता के कारण पर्यटकों को अपनी ओर आकर्षित करने की पूर्ण क्षमता रखता है। घनशाली से 30 कि0मी0 दूरी पर स्थित यह स्थल पर्यटकों को शांति एवं आनंद प्रदान करने में सक्षम है। देवप्रयाग एक प्राचीन शहर है। यह भारत के सर्वाधिक धार्मिक शहरों में से एक है। इस स्थान पर अलखनंदा और भागीरथी नदियां आपस में मिलती है। देवप्रयाग शहर समुद्र तल से 472 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। देवप्रयाग जिस पहाड़ी पर स्थित है उसे गृद्धाचल के नाम से जाना जाता है। यह जगह गिद्ध वंश के जटायु की तपोभूमि के रूप में भी जानी जाती है। माना जाता है कि इस स्थान पर ही भगवान राम ने किन्नर को मुक्त किया था। इसे ब्रह्माजी ने शाप दिया था जिस कारण वह मकड़ी बन गई थी और कहा जाता है कि पांडव भी यहीं से सहस्र्ताल होते हुए स्वर्गारोहण किया था।
वापसी का सफर
बूढ़ा केदार के दर्शन के पश्चात समय काफी बीत चुका था तो अब लग रहा था कि हमें चलना चाहिए। फिर क्या था चल दिए वापस अपने गंतव्य की ओर, फिर आते आते काफी रात बीत चुकी थी और ठंड भी काफी होने लगी थी लगभग 2 या 3 डिग्री तापमान रहा होगा। पूरे रास्ते रूक रूक कर चाय पीते जैसे ही नरेन्द्र नगर पहुंचे तब तक रात के 10 बज चुके थे। हमें अभी भी 20 किमी का सफर तय करना बाकी था और ठंड इतनी थी कि हाथ ने काम करना बंद कर दिया था। जैसे तैसे करके पास के घर से आग जलवाकर हाथों को सेंका और फिर वहां के लोगों से विदा लेकर अपने विश्वविद्याालय की ओर प्रस्थान किया। करीब रात्री के 11 बजे हमलोग ने अपने विश्वविद्याालय पहुंच कर चैन की सांस ली।
पूरी यात्रा के दौरान मैंने यह सीखा कि विकट परिस्थितियों में भी किस प्रकार लड़ना चाहिए और विकट परिस्थितियों में अपना धैर्य बनाए रखना चाहिए एवं जिस प्रकार पहाड़ों की सुंदरता का वर्णन किताबों में पढ़ा था उससे कहीं ज्यादा सुंदर पहाड़ थे और उनके सौन्दर्य में एक अलग ही बात थी जो लोगों को मंत्रमुग्ध करती है।
टिप्पणी: लेखक ने यह यात्रा जनवरी 2017 में की थी। लेख में व्यक्त किए गए विचारों एवं अनुभवों के लिए लेखक ही उत्तरदायी हैं। संस्थापक/संचालक का लेखक के विचारों या अनुभवों से सहमत होना अनिवार्य नहीं है।