
यात्रावृत पर पुस्तक की समीक्षा की है घुमंतु व् पत्रकार नवनीत कुमार जायसवाल ने –

कहा जाता है कि घुमक्कड़ी से बड़ा कोई धर्म नहीं है। घुमक्कड़ होना हर आदमी के लिए बड़े सौभाग्य की बात है। घुमक्कड़ी में कभी कभी कष्ट भी होते हैं। इसे उस तरह लेना चाहिए जैसे भोजन में मिर्च! ये बातें राहुल संकृत्यायन ने कही हैं और ये काफी हद तक हर घुमक्कड़ के जीवन का अनुभव होता है। आज बड़े दिनों बाद एक घुमक्कड़ी (उमेश पंत) की किताब “इनरलाइन पास” हाथ लगी। पढ़ते पढ़ते ऐसा लगा कि मानो मेरी परिकल्पना उस पहाड़ से होते हुए हिमालय के उस छोर पर जा पहुंची है जहां उमेश जी ले जाना चाहते हैं।
किताब की शुरुआत उन्होंने दिल्ली से की। एक बात बहुत अच्छी लगी कि दिल्ली में अजनबी की तरह जीना बहुत रोमांचक होता है। इससे काफी सहमत हूं। हालांकि सभी के अनुभव अलग अलग हो सकते हैं। लेकिन सभी को दिल्ली एक न एक दिन अपनाती जरूर है। आगे बस से हल्द्वानी और वहां से धारचूला का सफर का वृतांत रोमांचक भरा था। मैंने काफी समय उत्तराखंड को दिया है और वहां से एक अलग ही लगाव और प्रेम है तो मैं हर यात्रा को खुद पर लेकर महसूस करने की कोशिश करता हूं। इसी बीच उत्तराखंड की लोक गायिका की याद दिला दी जिनका कुछ दिन पहले ही स्वर्गवास हो गया है। आज भी उनके गीत पहाड़ी की यादों और जेहन में बस गए हैं।
किताब में 2013 में आयी केदारनाथ आपदा का भी जिक्र है। लेखक ने इसके साथ भारत-नेपाल के बीच के व्यापार की कड़ी और दोनों देश के व्यापारिक संबंधों का भी जिक्र किया है। धारचूला में कलकल बहती काली नदी जो भारत-नेपाल के बीच की कड़ी है। चारों ओर हरे भरे पहाड़ की सुंदरता आपके मन को मोह लेती है। दोनों देश के बीच इतने गहरे रिश्ते हैं कि ये लोग हमारे देश के साथ वैवाहिक संबंध बनाते हैं। मजदूरी व व्यापार करने आते हैं। किताब पढ़ने के बाद ऐसा महसूस होता है की है कि आप पहाड़ की उन वादियों में घूम रहे हैं जहां दूर दूर तक हरियाली ही हरियाली है। अधिकतर दिल्ली से जाने वाले लोग वहां कुछ दिन रहकर उन वादियों का आनंद लेना चाहते हैं।
अगर आप उत्तराखंड की यात्रा करते हैं तो गढ़वाल या कुमाऊं मंडल विकास निगम के गेस्ट हाउस में नहीं ठहरते तो यात्रा व्यर्थ है। यहां मंडुवे की रोटी और तोर की दाल नहीं खाई तो कुछ नहीं खाया। आगे की पैदल यात्रा काफी रोमांचक है। उस बूढी की बेटी का हरियाणवी लड़के से शादी करने का जिक्र, उनकी ना में भी बेटी की ख़ुशी में हामी भरना। उनके आंसू और करुणा ने यात्रा में अपनत्व ला दिया। साथ ही थके हारे KMVN में जाकर रात बिताना और सुबह अगले पड़ाव के लिए निकल जाना काफी रोमांचक है। उन पहाड़ों के बीच से होते हुए पैदल चलना काफी कठिन होता है लेकिन उसका अपना ही मजा है। उन अनुभवों को शब्दों में बयां करने के बजाय उनमें खोकर रह जाना चाहते हैं।
उमेश पहाड़ों को देखने के बाद लिखते हैं कि “बचपन से अब तक दिवाली के दिनों में आने वाले पोस्टरों में जिस पहाड़ों को देखा व आज आंखों के एकदम सामने था। इसे देखना ठीक वैसा ही था जैसे पहली बार शाहरुख़ खान को कुछ कदमों की दूरी पर देखा था और अनिल कपूर जब पहली बार मुस्कुराया था।” यह वही एहसास है जैसे किसी बच्चे को मनचाहा खिलौना मिल गया हो।
आगे की यात्रा घुमक्कड़ तस्वीर से मिलना, उस साफ़ सुथरी पार्वती झील से होते हुए गंतव्य तक पहुंचने की कहानी है। कल कल बहती झील के किनारे बैठने के बाद कलरव करते झरने के पानी की गूंज मन मस्तिष्क को शांति प्रदान करती है।
“मुझे वो मैं याद आ रहा था जो यात्रा शुरू करने से पहले इन अजनबी लोगों, जीवों और दृश्यों से नहीं मिला था। जिसने ज़िंदगी में इससे पहले कभी भोजपत्र के पेड़, जंगली भरल, झुप्पू और ग्लेशियर नहीं देखे थे। जो नहीं जानता था कि पांच हज़ार मीटर की ऊंचाई पर खड़े होकर दुनिया को अपने क़दमों के नीचे महसूस करना कैसा होता है?”
“अपना पुराना ‘मैं’, आदि कैलास पर्वत की उन ऊंचाइयों में छोड़ दिया था मैंने। जो यहां आता है वो नया होकर लौटता है, पर लौटता है वहीं जहां से वो पुराना सा चला आया था। अपने पुरानेपन में नया होकर लौटना था मुझे।”
लौटते वक़्त बारिश ज्यादा होने की वजह से सफर की मुश्किलों के साथ कुटी गांव में ठहरना। अगले दिन आगे चलते हुए उस गांव को देखना जो लगभग 200 साल पुराने सभ्यता को अपने में समेट रखा था। मकानों की दीवार पर सीमेंट के बजाय दाल के लेप की चिनाई थी। पहाड़ों में बारिश के दिनों भूस्खलन ज्यादा होता है। उस झंझावातों से निकलकर यात्रा के संपूर्ण अनुभवों को बताती किताब बहुत हो रोचक अनुभव देती है। लेखक ने अपने अनुभवों को बेहद ही बारीकी से समेटा है। इसे पढ़ने के बाद आप सचमुच उसी आदि कैलास की यात्रा तक जा सकते हैं जहां लेखक खुद घूमकर आये हैं।
इस किताब के माध्यम से उत्तराखंड की खूबसूरती का पता चलता है। केदारनाथ आपदा में हुई त्रासदी का दंश झेल रहे क्षेत्र के बारे में विस्तार से जान सकेंगे। इस यात्रा के दौरान होने वाली चुनौतियों को कैसे पार किया जाता है इसका अनुभव बेहतर मिल सकता है। भारत-नेपाल-तिब्बत के बीच की कड़ी को बारीकी से समझ सकेंगे। इसके साथ ही पहाड़ों में बारिश में हो रहे भूस्खलन के झंझावातों से निकलकर आये अनुभवों भी जान सकेंगे। लगभग 18 दिन में 200 किलोमीटर की पैदल यात्रा के अनुभव के साथ आदि कैलास पर्वत की बारीक जानकारी मिलेगी।
प्रकाशक : हिन्द युग्म
मूल्य : रु 115 /- मात्र
पुस्तक अमेज़ॉन पर भी उपलब्ध है।
टिप्पणी: लेख में व्यक्त किए गए विचारों एवं अनुभवों के लिए लेखक ही उत्तरदायी हैं। संस्थापक/संचालक का लेखक के विचारों या अनुभवों से सहमत होना अनिवार्य नहीं है।