बग्घी को आज सजाया जा रहा था। नौकर चाकर सब एक ही काम में लगे हुए थे। धोड़े का आज सोलह श्रृंगार किया गया था। सेठ शंभूनाथ ने बनारस की ओर प्रस्थान करते हुए घर वालों से विदा ली। काफी लंबे अरसे के बाद आज शंभूनाथ बनारस जा रहे थे।
मन में उत्सुकता के लड्डू फूट रहे थे। बनारस पहुँचने की व्याकुलता उतनी ही थी, जितनी द्वापर में कृष्ण को सुदामा से मिलने की हुई थी। सेठ जी के भी मन में कृष्ण के समान अपने मित्र प्रभुदयाल से मिलने की व्याकुलता हो रही थी। दोनों मित्र आज काफी लंबे अरसे बाद मिल रहे थे।
प्रभुदयाल अपने मौजे के प्रधान थे और उनके घर नंदन के जन्म के ठीक एक वर्ष बाद नन्हीं परी ने जन्म लिया था। उसी के उत्सव में शामिल होने शंभूनाथ बनारस आए हुए थे।
धूप की तपन पूरी देह को झुलसाने को आतुर थी। नदी में सूर्य का प्रकाश ऐसे पड़ रहा था। मानो सूर्यमुखी का फूल खिल आया हो। सूर्य की किरणें नदी के जल को किरणों से अठखेलियाँ करवा रही थीं। बीच-बीच में बच्चे कंकर नदी में फेंककर सूर्यमुखी समान जल को हिलोरे लेते देख उन्हें प्रसन्नता हो रही थी। कंकर के आघात से जितना नदी का जल हिलोरे ले रहा था। उतने ही बच्चों के अंतर्मन में बुलबुले फूट रहे थे। नदी के छोर पर फूस का घर नदी से कोई ज्यादा दूर नहीं था। उसकी परछाई स्पष्ट रूप से नदी के प्रवाह के साथ एक छोर से दूसरे छोर पर बहकर जा रही थी। फूस की मढ़ाई को किसी राजमहल से कम न सजाया गया था। चारों तरफ गेंदे के फूलों से घिरा हुआ घर खूबसूरती पर चार चाँद लगा रहा था। घर को और खूबसूरती देने के लिए चमेली और गुलाब के फूलों से सजाया गया था।
प्रभुदयाल, जो इस मौजे के प्रधान थे; अपने घर आने वाले मेहमानों के आव-भगत में कोई कसर नहीं छोड़ना चाहते थे। सेठ शंभूनाथ के उत्सव को देखकर वह अपने घर के उत्सव को कमतर नहीं करने वाले थे। जो लुत्फ उन्होंने शंभूनाथ के उत्सव में उठाया था; उससे कहीं ज्यादा बड़ा उत्सव प्रधान प्रभुदयाल करने को आतुर थे। क्योंकि, सेठों के घर की बानगी और शोभा उनके दिखावे में निहित होती है। जितना बड़ा उत्सव, उतना बड़ा नाम। तैयारी पूरी हो चुकी थी; बस अब जायजा लेने की बारी थी।
प्रभुदयाल- अरे ओ नारंग! एक बार तुम पूरी सजावट का जायजा कर लो। कहीं कोई कमी न रह जाए।
नारंग- मालिक! मैंने पूरी तरह देख लिया है। कही कोई कमी जान नहीं पड़ रही है। मालिक आप कह रहे हैं, तो एक बेर और देख आते हैं।
नारंग- अपनी शेखी उन नौकरों पर बघारने लगा। जो काम में लगे हुए थे। होगा क्यों नहीं? आखिर प्रधान जी का खास जो था।
नारंग- अबे ननकू! इघर आओ बे।
ननकू- हाँ, बोलो।
नारंग- अबे, ई का है? (पास में लगे सूखे फूलों की झालर को दिखाते हुए बोला।)
ननकू- अरे मालिक! ई झालर सुबह से लगी है और सूरज तप रहा है। इसी वजह से मुरझा गई है।
नारंग- काम कर लो; हराम का पैसा नहीं मिलने वाला।
ननकू ने जवाब दिया- अभी बदलवा दूँगा; और मुँह बिचकाते हुए बोला- तुम कहीं के लार्ड-गवर्नर हो? तुम भी सही करवा सकते हो, या हमने ही ठेका ले रखा है सब काम का।
नारंग- देखो, ज्यादा मुँह न चलाओ; समझे। इतना बोलकर वह कुम्हलाए कुम्हड़े की तरह आगे बढ़ गया।
इतने में सेठ शंभूनाथ की बग्घी आती दिखाई दी। नारंग की नजर पड़ते ही वह दौड़ा-दौड़ा प्रभुदयाल को ढूँढने लगा।
मालिक! ओ मालिक! कहाँ हो आप?
उधर से प्रभुदयाल निकलते हुए बोले।
प्रभुदयाल- हाँ नारंग! काहे इतना भौंक रहा है बे। काम-धाम नहीं है का तुम्हारे पास?
नारंग- मालिक! मेहमानों का आगमन हो गया है।
प्रभुदयाल- हाँ, तो ये सारा तामझाम मेहमानों के लिए ही तो किया गया है। ये सब गाँव के जाहिल मर-भुख्खों के लिए थोड़े ही है।
नारंग- मालिक! हम ई नहीं कह रहे हैं। मालिक सेठ जी आ रहे हैं। अभी उनकी बग्गी इघर की ओर ही आ रही है।
प्रधान जीने जब तक पलटकर देखा तब तक शंभूनाथ काफी नजदीक आ चुके थे। अब प्रधान जी के खुशी का कोई ठिकाना नहीं रहा।
प्रधान जी दौड़े-दौड़े शंभूनाथ के पास गए और गले लगा लिया। दोनों मित्र इस कदर मिल रहे थे, मानों आकाश और धरती आपस में मिल रहे हों।
प्रधान जी- काफी अरसे बाद आपका बनारस आगमन हुआ है।
शंभूनाथ- क्या करें प्रधान जी! व्यापार से अब फुरसत कहाँ है।
प्रधान जी- हाँ, ये बात तो है। अब सभी अपने-अपने कामों में व्यस्त हो गए हैं। मुझे देखो न गाँव के कामों से फुरसत ही कहाँ है। अब पूरा दिन घर-परिवार में व्यस्त रहते हैं। अब अपना तो यही संसार बनकर रह गया है। न कहीं जाने की फुरसत है, न आने की। शंभूनाथ सेठ ने हाँ में हाँ मिलाकर अपनी सहमति जाहिर की। उनके चेहरे को देखकर उनकी मायूसी का पता बहुत आसानी से लगाया जा सकता था।
दोनों मित्र आज काफी अरसे बाद मिले थे। ऐसे में पुरानी बातें न छिड़ें, ऐसा हो ही नहीं सकता था। मिल बैठे जब दो यार, बातों का शुरू हो गया व्यापार।
प्रधान जी- यार शंभू! इतनी व्यस्तता होने के कारण एक-दूजे का हाल-चाल भी नहीं हो पाता है। अब देखो न! मैं नंदन के जन्म पर गया था। लेकिन, आधे उत्सव से वापस आना पड़ा। ढँग से बातचीत भी नहीं हो पाई थी। आज तो पूरा समय है; लंबी गुफ्तगू होगी।
शंभूनाथ सेठ- हाँ यार! आज खूब सारी बात करेंगे।
नारंग! ओ नारंग! कहा चला गया यार? इसके पाँव में तो बिल्ली बाँधी है। रुकता ही नहीं है एक क्षण भी।
नारंग- आवाज सुनकर दौड़ा चला आ रहा था। जी मालिक! बताओ आवाज दी क्या आपने?
प्रभुदयाल (प्रधान)- अरे, कबसे गला फाड़ रहा हूँ। कान में तेल डाल रखा है? जब मेरी बात सुनने की फुरसत हो, तब न!
नारंग- नहीं मालिक! बताओ, क्या काम था?
प्रभुदयाल (प्रधान)- अरे, बस घूमते ही रहोगे या मेहमानों की आव-भगत भी करोगे। जाओ हमारे मित्र इतनी दूर से थके आ रहे हैं। इनके लिए जलपान की व्यवस्था करो।
नारंग रसगुल्ला लेकर हाजिर हो गया। बोला- मालिक लीजिए मुँह मीठा कीजिए। बहुत ही बढ़िया मिठाई लाए हैं आपके लिए।
अच्छा धन्यवाद! रसगुल्ले को मुँह में डालकर शंभूनाथ बोल पड़े।
नारंग- मालिक! एक बात बोलें? आपके यहाँ बहुत बड़ा उत्सव हुआ था न!
शंभूनाथ- हाँ, हुआ तो था।
मालिक! हम नहीं जा पाए; बड़ा दुःख हो रहा है हमको इस बात का।
शंभूनाथ- अरे, उसमें दुःख की क्या बात है?
नारंग- हमरे मालिक आपके उत्सव की मिठाई लेकर आए थे। जबसे खाई है; आज भी मुँह में पानी आ रहा है।
शंभूनाथ- हाहाहाहाहाहाहा… अच्छा, ठीक है। फिर कभी बुलाएँगे आपको; तब आना।
नारंग- अच्छा मालिक! याद जरूर रखना अपने इस गरीब सेवक को।
शंभूनाथ ने हामी भरकर सिर हिला दिया।
सामने के पेड़ पर एक भोंपू बाँध दिया गया था। जिसका काम ग्रामवासियों का मनोरंजन करना था। बीच-बीच में उस भोंपू से बाँग भी लगाई जा रही थी कि सारे ग्रामवासी प्रधान जी के यहाँ साँझ को पहुँचे।
हजारों की संख्या में लोग तो सिर्फ भोंपू को देखने आ रहे थे। क्योंकि, इस प्रकार का यंत्र बिरले ही देखने को मिलता था। उसमें से आ रही आवाज को देखकर लोगों में उत्सुकता हो रही थी। कुछ ग्रामवासियों ने तो भोंपू के आसपास जमघट लगा रखा था।
लोगों में खाने-पीने और उत्सव से ज्यादा उत्सुकता तो उस भोंपू के बारे में जानने की थी; कि आखिर इसमें आवाज कहाँ से आती है?
नारंग दौड़ते हुए ग्रामवासियों को दूर करके बोला- हटो, हटो; चलो यहाँ से। काम-धंधे में लग जाओ। यहाँ फालतू का समय मत खराब करो; समझे! गाँव वाले वहाँ से एक-एक कर जाने लगे। नारंग को भी गाँव-वासियों से ज्यादा उत्सुकता इस बात को जानने की थी कि आखिर सच में यह बजता कैसे है?
तभी अचानक भीड़ को चीरती हुई एक आवाज सहसा हरिया के कान में गूँज गई। यह आवाज प्रभुदयाल की थी। नारंग! ओ नारंग! चल मेहमानों के खाने का पूरा बंदोबस्त कर बहुत साँझ हो रही है। अब खाना शुरू कर देना चाहिए। क्योंकि, इसके बाद महफिल का कार्यक्रम रखा गया है। इन सबके बीच भोंपू में घर की महिलाओं के गाने-बजाने की आवाज आने लगी। पूरा वातावरण उत्सव के रंग में रंग गया था। बच्चों का झुंड पहले ही तिलचट्टों की तरह खाने पर टूट पड़ा था। नारंग बच्चों को बाहर भगाने में लगा था। ताकि किसी मेहमान को किसी प्रकार की शिकायत न हो।
आकाश में तारे टिमटिमाने लगे थे। तारों को देखकर सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि सूर्य की रोशनी को आकाश ने पूरी तरह अपनी आगोश में लिया था। ऊपर से टिमटिमाटे तारों ने बादलों का श्रृंगार कर दिया। किसी नई-नवेली दुल्हन की भाँति रात खुशनुमा होती जा रही थी। क्योंकि, महफिल सजने में अब कुछ ही वक्त बचा था।
घर की औरतें गाना गा रही थीं। सुमित्रा को घर के आँगन में बिठाया गया था। साथ में नन्हीं परी को गोद में लिए सुमित्रा और भी खूबसूरत लग रही थी। सारे मेहमान उपहार और आशीर्वाद देकर अपने घरों की ओर प्रस्थान कर रहे थे। जो दूर के मेहमान थे; वो बाहर चौपाल में बैठकर महफिल सजने का इंतजार कर रहे थे।
इतने में सेठ शंभूनाथ और प्रधान जी खान-पान से निवृत्त होकर महफिल में जा बैठे। तानपुरे पर संगीत बज रहा था और गाँव के ही कुछ युवा कर्कश आवाज में मल्हार गाने लगे। आवाज में इतनी कर्कसता थी कि कोई एक क्षण भी न रुक पाए। धीरे-धीरे संगीत का दौर शुरू हो चुका था। लेकिन, कोई युवा ऐसा नहीं निकलकर आया। जो गाने-बजाने के साथ उचित न्याय कर पाता।
हल्के से मंद-मंद मुस्काराते हुए शंभूनाथ ने तानपुरे को अपनी ओर खींच लिया और एक कोशिश करने लगे। आवाज में थोड़ी-सी मधुरता को देखकर गाँव के युवा, जो कौवे जैसी आवाज सुनकर काँव-काँव-काँव करते हुए घर की तरफ बढ़ रहे थे। उनके कदम एक क्षण के लिए ठिठुर गए। शंभूनाथ ने अभी तानपुरा बजाना शुरू ही किया कि एक मद्धिम मधुर संगीत ने पूरे वातावरण को संगीतमय बना दिया। अब जो जहाँ था, वहीं से तानपुरे की तरफ दौड़ा। ग्रामवासियों को एक क्षण लगा कि प्रभुदयाल (प्रधान) ने कोई बाहरी कलाकार बुलाया है। मजमा लग गया। पूरा जमघट अब संगीत का लुत्फ लेने लगा। उसी में कुछ युवा वाह, वाह; करके सेठ जी को और उत्साहित कर रहे थे। इस उत्साहवर्धन से शंभूनाथ पूरे जोश में आ गए और तरह-तरह का राग निकालकर गाँव वालों का मनोरंजन करने लगे।
अब गाने का क्रम शुरू हुआ। शंभूनाथ का गाना सुनकर सारे गाँव वाले मानो शरमा गए। उसमें से एक युवक बोला- वाह, वाह; सेठ जी! आपने आज हम सभी युवाओं को शर्मिंदा कर दिया। हम युवा आजकल अपनी संस्कृति, सभ्यता, संस्कार, गीत और संगीत को भूलते जा रहे हैं। जो अहसास आज हम लोगों को हुआ है। वह शायद कभी न हो पाता। आप तो संगीत के सरताज निकले। शंभूनाथ शरमाते हुए बोले- अरे नहीं बेटा! अब उतना कहा पहले जैसा अब कहाँ गा पाता हूँ। सेठ जी की बातों से स्वाभिमान के स्वर ऊँचे हुए जा रहे थे। उनकी वाणी में स्पष्ट रूप से अहंकार झलक रहा था। किंतु, धीरे-धीरे महफिल अब समाप्त होने की कगार पर आ गई। रात और भी स्याह और काली होती जा रही थी। लोग अपने अपने घरों की ओर प्रस्थान करने लगे।
इतने में प्रभुदयाल और सेठ जी आपसी मंत्रणा के लिए चौपाल पहुँच गए। चौपाल में लंबी बातचीत का दौर शुरू हो गया। वक्त और समय के घूमते हुए पहिए ने दोनों को दो छोर पर लाकर खड़ा कर दिया; नहीं हम तो कभी न बिछड़ने वाले मित्र आज इतने दिनों के बाद बातों में मशगूल न हुए होते।
शंभूनाथ ने प्रभुदयाल को मायूस होकर अपनी आपबीती सुनाई। उनके आँखों में दूर जाने का गम स्पष्ट झलक रहा था। प्रभुदयाल क्या करें मित्र! बात ही कुछ ऐसी है। ये सांसारिक मोह-माया ने हम सभी को घेर लिया है। इन सबसे अब फुरसत कहाँ कि बैठकर दो शब्द बात कर सकें। वो दिन ही कुछ और थे। पूरा समय हम लोग साथ में बिताया करते थे। समुद्र की लहरों की भाँति साहिल से टकराकर भी अपने गंतव्य को आ जाते थे। अब इतने दिनों बाद मिले हैं। तो उसी जिंदगी को फिर जीने का मन कर रहा है।
शंभूनाथ- हाँ यार! क्या दिन थे वो; पूरा समय खाली रहता था। कुछ भी करें बस घूमना-फिरना और हद से गुजर जाना हमारी फितरत होती थी। दोनों की बातों में करुणा का लोप दिखाई देने लगा।
(अंततः दोनों ने निर्णय लिया कि क्यों न इस दोस्ती को फिर जिंदा करके रिश्तेदारी में बदल दिया जाए।)
शंभूनाथ- आपका खयाल ठीक है।
प्रभुदयाल (प्रधान)- हाँ, हम अपनी बेटी का विवाह आपके नंदन से करके इसे फिर रिश्तेदारी में बदल देंगे। फिर तो रोज आना-जाना लगा रहेगा। हम दो मित्र फिर से आपस में करीब आ जाएँगे।
शंभूनाथ- हाँ प्रभुदयाल! आपके खयालात ठीक है। मैं अपने नंदन का ब्याह आपकी होने वाली बेटी से करुँगा।
दोनों की बातें भँवर में उलझती जा रही थीं; जिस रिश्ते को साकार करने की बात हो रही थी। इस बात से दो अनजान और अजनबी मासूम अभी इस दुनिया से पूरी तरह अंजान थे। उनको क्या पता था कि सात जन्मों के रिश्तों को बातों ही बातों में निभाने का निर्णय हो जाएगा। दोनों ने अपनी दोस्ती को रिश्ते में बदलने का निर्णय ले लिया। अब रात काफी हो चली। सुबह जल्दी उठकर इस सिलसिले का आगे बढ़ाने का निर्णय लेकर दोनों शांत और शून्य वातावरण में सोने चले गए। सुबह होते ही शंभूनाथ से अपने मित्रता और वादे को याद दिलाकर विदा हो लिए।
– अवधेश वर्मा
प्रकाशक : हिन्द युग्म ब्लू
अमेज़न लिंक : https://amzn.to/2JsC1H8
टिप्पणी: लेख में व्यक्त किए गए विचारों एवं अनुभवों के लिए लेखक ही उत्तरदायी हैं। संस्थापक/संचालक का लेखक के विचारों या अनुभवों से सहमत होना अनिवार्य नहीं है।