स्टूडेंट लाइफ मैं जब पहली पहली मुहब्बत मैं दिल टूटा था न, तो यही वक़्त था जब मेहंदी हसन, गुलाम अली, और जगजीत सिंह की ग़ज़लों के मायने समझ आने शुरू हुए थे। वरना इससे पहले तो नब्बे के दशक वाले कुमार सानू के नगमें जुबान पर चढ़े हुए रहते थे (सोचेंगे तुम्हें प्यार करैं या नहीं ,,,,टाइप)। और दिल क्या टूटा था साहब बस क़यामत ही नहीं आयी थी। कसम से कह रहा हूँ मुहम्मद रफ़ी हिन्दुस्तान में न पैदा हुये होते न तो दुनिया के सबसे ज्यादा डिप्रेशन के केस अपने यहाँ ही होते। टूटे दिलों का हमारी स्टूडेंट लाइफ में यही सहारा थीं, तलत महमूद, रफ़ी के ग़मगीन नगमें, अहमद फराज की गजलें, कम्युनिस्टों की लिखी मोटो-मोटी किताबें आदि-आदि। मुहब्बत में दिल टूटने पर सभी जगह मन लगता, बस सिर्फ कोर्स की किताबों में नहीं। इसी मुहब्बत के चक्कर में फर्स्ट ईयर मैं बानी बनाई फर्स्ट डिवीजन सेकण्ड क्लास की रह गयी; लेकिन फिर भी दिल की गमगीनी को सुकून नहीं मिला। मोबाइल इंटरनेट पर मुहब्बत करने कम्बक्तो, तुम इस बात का क्या अहसास कर पाओ कि दिल टूटने के बाद एक चाय को चार घंटे तक गर्मी के आभास के साथ पीना क्या खुमारी है, या बंद कमरे में जीरो वात के लाल बल्ब की रौशनी में अगरबत्ती का धुवां लगाकर (अगर सिगरेट नहीं पीते हो तो) मेहंदी हसन की ‘रंजिश की सही ,,,, आ फिर से मुझे छोड़के जाने के लिए आ’ जैसी गजलों को सुनने का क्या मजा है।,,,,, मतलब जब तक गली मोहल्ले के कुत्ते के भौंकने की आवाज में तुमको तन्हाई की फीलिंग न आये तब तक ये समझते रहो कि तुम्हारी मुहब्बत पुख्ता नहीं हुई थी। और जो नमूना आशिकी की इस हद तक नहीं गया दरअसल उसको मुहब्बत का अधिकार भी नहीं।
तो ये भी एक दौर था जब अब्दुल बिस्मिलाह की किताब ”समर शेष है” के डायलॉग ‘दरअसल नारी नामक मादा जीव इतनी कायर और नासमझ होती है कि प्यार करने के काबिल नहीं होती ‘,,,, जैसी क्रांतिकारी परिभाषाओं से अपने वाला पक्ष हमेशा स्ट्रांग रखने की कोशिश करते थे। गनीमत ये थी कि शरत बाबू के नोबल्स उस वक़्त हाथ नहीं आये वरना हरकतें हमारी भीं मजनुओं से कम वाली नहीं थीं कि इतिहास ही बनाते। तो साहब हमारी खुमारी उतारने के लिए मेरे दो जिगरी दोस्तों ने ट्रेकिंग पर जाने का प्लान बनाया ताकि मूड कुछ चेंज हो सके और एक भले घर का लड़का जो अमूमन बर्बाद होने ही कगार पर है सही रास्ते पर आ जाए आदि-आदि। ट्रेकिंग करने की आदत अमूमन मेरी गाँव से ही डेवलप थी जिसको मैंने कई सालों तक जारी रखा और पहाड़ के अमूमन सभी छोटे बड़े ट्रेक नाप डाले। जहाँ साल के अंत मैं क्लास के पढ़ाकू लड़के-लड़कियों के पास भारी भरकम मार्कशीट होतीं वहीँ हमारे पास अनुभवों के पिटारे आबाद रहते थे कि कितनी जगह घूमने गए, कितने प्रोग्राम किये ,,,,,बस मार्कशीट बहुत हल्की होती थी।
मुहब्बत की छोड़ें तो जिंदगी मैं कोई न कोई वक़्त ऐसा होता है जब जिंदगी को आपको बहुत कुछ सिखाना होता है। और नियति उसके लिए एक विशेष माहौल बनाती है। प्यार के ज़ख्म अलग बात है लेकिन ये जिंदगी का वो वक़्त था जिसमें मेरे साथ अमूमन सब कुछ ही नकारात्मक हो रहा था। एक तरह से डिप्रेशन जैसी हालत हो चुकी थी। पूरे दुनिया एक तरफ जैसी लगती थी और अपने आत्मविश्वास से एक कदम रखना भारी सा लगता था। इसकी वजहें भीं थीं और सही गलत के परे भी थीं लेकिन आज महसूसता हूँ तो जिंदगी ने सबसे बेहतरीन सबक उसी वक़्त में सिखाये थे लेकिन माध्यम बहुत हटकर बनाये थे ,,,,
दिसंबर का महीना सलेक्ट किया था घूमने के लिए और घूमने के लिए उस जगह को चुना जो मेरे दिल के सबसे करीब है,,,,,,केदार घाटी,,,,,सर्दियों में जब श्रीनगर में पांच बजे ही अन्धेरा हो जाता था और कोहरा बरसने जैसे लगता था ऐसे वक़्त में दोस्तों के साथ नदी किनारे देर तक बैठे रहना, या फिर थिएटर मैं किसी प्ले की रिहर्सल,,,,और फिर दस बजे रात मैं यूनिवर्सिटी से घर तक अपनी खामोशी सुनते हुए गुजरना,,,,, बस ऐसा ही मौसम तय किया ‘सुरजीत’ और ‘नीरज’ के साथ,,,,,, मुझे अब भी महसूस होता है कि यूनिवर्सिटी कैम्पस की पुरानी बिल्डिंग में रात के वक़्त अगर गिटार बजाओ तो इतना बेहतरीन इको इफेक्ट आता है कि इलेक्ट्रॉनिक गिटार की जरूरत ही नहीं लगती ,,,,,और स्टूडेंट लाइफ में मैं हमेशा उन अमीर लौंडों में था जिसके पास अपना बड़ा वाला एसएलआर कैमरा था और दो दो गिटार भी थे जो मैंने ट्यूशन पढ़ाकर खरीदे थे। फोटोग्राफी लोकेश (स्वर्गीय) भाई से सीखता था।
उस वक़्त केदार घाटी जाने का एक कारण और भी था। वर्ष १९९७ में केदारनाथ घाटी में बहुत जगह भूस्खलन हुवा था। मध्यमहेश्वर से आने वाली मधु गंगा पर पहाड़ गिरने से एक झील बन गयी थी। प्रशाशन ने श्रीनगर में भी नदी किनारे के सभी घरों को खाली किया हुवा था। बारिश ने इतनी तबाही मचाई थी कि अमूमन कोई दिन ऐसा नहीं था जब अखबार में किसी गाड़ी के गिरने, या कहीं लैंड स्लाडिंग की खबर न आती थी। बहुत लोगों की जानें भीं गयीं थी और बहुत पलायन भी हो गया था। कालीमठ वाला छेत्र बहुत बड़ी तबाही का शिकार हुवा था।
एक एक ट्रेकिंग बैग के साथ कैमरा, म्यूजिक सिस्टम, थर्मस और जो भी हमारे पास संसाधन थे उनको लेकर हम सीधे चल दिए केदार घाटी। ऑफ़ सीजन था तो लोकल सवारियों के हिसाब से पूरा दिन लगना ही था। यात्रा हमने गाड़ी की छत में बैठकर की। वही छाती चीरती ठण्ड और वही हमारी बचकानी हरकतें। लेकिन एक एक लम्हा बड़ी शिद्दत से जिया गया। दो बजे तक गौरी कुंड पहुँच गए थे। ये वो वक़्त था जब वहां तक सिर्फ एक गेट के बस जाती थी और आगे जाने की मनाही होती थी। कुंड में स्नान और मंदिर में दर्शन पूजा सब कुछ हुई। फिर उसी बस की छत में वापस गुप्तकाशी पहुंचे और वहीँ रात गुजारने का फैसला हुवा। बहुत बेतरतीब सफर था जिसमें कुछ भी प्लान नहीं किया हुवा था। बस,,,रुख हवाओं का जिधर का है उधर के हम हैं टाइप वाला,,,,,, हमारी इन्हीं हरकतों की वजह से अमूमन सभी लोग हमको आवारा टाइप कैटेगिरी में रखते थे, चाहे क्लासमेट्स हों, सीनियर्स हों या प्रोफेसर्स हों ,,,,
गुप्तकाशी मंदिर के दर्शन के बाद अगली सुबह तुंगनाथ चोपता जाने का प्लान किया। उखीमठ तक गाड़ी से और वहां घूमकर एक लोकल टैक्सी वाले के साथ चोपता की तरफ ,,,,, लक-दक वाली बर्फ और कंपाने वाली ठण्ड लेकिन देवरिया ताल, चोपता और तुंगनाथ की खूबसूरती कहाँ कुछ महसूस होने देती है ?? दिन के तीन बजे होंगे कि हम चंद्रशिला से वापस चोपता बाज़ार की एकमात्र दुकान में पराठे खा रहे थे। अब अगला पड़ाव या तो मंडल से गोपेश्वर था, या वापस उखीमठ ,,,,, लेकिन हमने कुछ नया सोचा ,,,, कि चलो ‘धोतीधार’ से जंगल पार करके नागनाथ पोखरी चलते हैं,,,,,,,,, लोकल लोगों के हिसाब से क्योंकि हम ‘जवान छोरे’ हैं तो शायद दो घंटे मै रास्ता पूरा कर लेंगे। लेकिन साहब एक बार जो जंगल में घुसे तो बाहर निकलने में घंटों लग गए। बर्फ और बेमौसमी बारिश मैं भीगकर, जंगल के रास्तों में टांगें मुड़वाकर, जब हम हापला बैंड पहुंचे तो अमूमन रात के दस बज चुके थे। मेरे जो दोस्त पोखरी छेत्र के हैं वो जानते होंगे कि रात के दस बजे हापला बैंड पर होना किस बला का नाम है वो भी सर्दियों में। हमारे पास जो भी था खाने को उससे काम चलाया। छाती चीरने वाली हवा थी और हमारे पास कोई ठिकाना नहीं था कि यहाँ से कहाँ जाया जाय। यहाँ गेट के बस खड़ी थी जिसको सुबह आठ बजे चलना था। कंडक्टर भला आदमी था उसने गाड़ी के अंदर सोने के लिए कहा। हमने वहां पर एक किनारे आग जलाई और थोड़ा गर्म हुए। और ग्यारह बजे मैंने जैसे निर्णय की स्थिति में कहा कि चलो चलते हैं। रात को पोखरी पहुंचेंगे और वहीँ होटल में रुकेंगे। इस बेवकूफी भरे निर्णय को दोनों दोस्तों ने भी माना क्योंकि वो इस साइड शायद पहली बार आ रहे थे। यहीं कहीं किसी गाँव में मैंने अपने बचपन का खूबसूरत हिस्सा जिया है इसलिए चाँदनीखाल बाजार तक कई बार आना हुवा है। और फिर हमारा सेल से चलने वाला म्यूजिक सिस्टम, जिसपर टॉर्च भी थी हमने ऑन किया ,,,,, फिर इसी राहगुज़र पर शायद ,,,,, और चल दिए। रात के बारह बजे उस घने जंगल का रास्ता, जहाँ अमूमन मसाण, आछरियां, बयाल और न जाने कैसे कैसे प्रतिरूपों का जिक्र होता है लेकिन हमको कुछ नहीं मिला। न जंगली जानवर ही मिले न ही कोई हादसा। आसमान बहुत साफ़ था और चटकदार चाँदनी ,,,,, रात को भी हम साफ़ साफ़ देख पा रहे थे। एक घंटा चलने के बाद कहीं हमको एक जीप मिली जो दरअसल पोखरी से इस गाओं तक कुछ छूटे हुए पियक्कड़ बारातियों को लेने आई थी। लोकल भाषा मैं संवाद हुवा तो जान पहचान भी निकाल ली। बस फिर ड्राइवर ने हमको छत पर बिठा दिया और पोखरी की ओर चल दिया। छोटा लेकिन बहुत ही खूबसूरत अहसास था जिसको मैं एक एक बूँद पी रहा था और खुद को अवसाद से बाहर निकालने की कोशिश कर रहा था। सुबह सुबह हमने अपने आपको नागनाथ पोखरी में पाया।
नागनाथ पोखरी बाज़ार मैं स्टेशन पर की दो पुरानी दुकानें जहाँ मैदे की रंगीन मिठाई मिलती थी उस वक़्त तक जर्जर हालत में ही सही लेकिन मौजूद थीं। किसी तरह खुद को संयत करके हमने कुछ वक़्त वहां गुजारा और सुबह की रुद्रप्रयाग आने वाली बस पकड़ ली। रास्ते में कनकचौरी से कार्तिक स्वामी जाना था जो मेरे बचपन का सबसे खूबसूरत ट्रैक हुवा करता था। हर जगह की अपनी खूबसूरती और खासियत। उस दौर में ट्रैकिंग आदि मैं बहुत ज्यादा लोगों की रूचि होती भी नहीं थी। मोहनखाल और नागनाथ पोखरी के बीच के बुरांस के जंगल में जब गेट वाली बस से सफर करते थे तो लगता था हम दुनिया की सबसे खूबसूरत जगह पर हैं। उस दौर की एक खासियत यह भी थी कि हर गाड़ी में नेगी जी के पहाड़ी गीत बजते थे। और फिर दोपहर तक हम कार्तिक स्वामी घूमकर कनकचौरी आ गए जहाँ से अब वापसी का प्लान करना था।
रुद्रप्रयाग पहुंचकर लगा कि चलो घर अपने गाँव चलते हैं। थकावट भी थी और मानसिक डिप्रेशन तो था ही। अचानक ऐसा महसूस हुवा जैसे ये सफर अधूरा सा रह गया है। कहीं कुछ न कुछ है जो पूरा नहीं हुवा है। रुद्रप्रयाग बेलनी पल पर खड़े हम तीनों गांव जाने की बस का इन्तजार कर रहे थे और मेरा मन इसी उधेड़बुन में था कि कहीं कुछ छूट रहा है, एक सफर जैसे अधूरा रहने जा रहा है। और फिर अचानक हमको पल से गुप्तकाशी की बस आती हुई दिखाई दी। मैं भागकर बस में चढ़ गया ,,,,, दोनों को आवाज दी कि चलो अभी ट्रेकिंग पूरी नहीं हुई है। कल वापस आ जाएंगे। दोनों को मेरा असहज व्यहवार समझ नहीं आया, थके हारे दोस्तों ने भी अपने आपको बस के अंदर ठेल दिया, तमाम गालियों की बौछार के साथ कि यहीं से तो यात्रा शुरू की थी तो अब फिर वहीँ क्यों ?
दूसरी बार जैसे ही हमने इस घाटी रुख किया तो मुझे अपने नेचर मैं कुछ बदलाव सा महसूस होने लगा था। कुछ ऐसा कि जैसे किसी तंद्रा के टूटने से पहले की मनोस्थिति हो। दोनों मित्र भी खामोश थे लेकिन साथ चल रहे थे। थकावट भी थी , नींद भी आ रही थी लेकिन फिर भी ये कदम उठा लिया था। गुप्तकाशी पहुंचे से थोड़ा पहले से कालीमठ की सड़क कटती है जो उस वक़्त बंद थी और बहुत जीर्ण शीर्ण हालत में थीं। हम लोग वहीँ उतर गए और अपने अपने किट लादकर कालीमठ की सड़क पर हो लिए। गौरतलब है कि कालीमठ के पास ‘कबील्ठा’ में महाकवि कालिदास का जन्मस्थान भी बताया जाता है।
पूरे रास्ते मैं जो तबाही मची थी उसका बयान करना ही मुश्किल था। तीन घंटे का वक़्त लगा हमको कालीमठ बाज़ार पहुँचने में। इतनी बड़ी बड़ी चट्टानें, और मिट्टी के ढेर लगे हुए थे कि कल्पना कर सकते थे कि यहाँ उस वक़्त कितनी विकट स्थिति रही होगी। पहली बार जब मैं यहाँ आया था तो बहुत रौनक थी; उस वक़्त मैं रुच्छ महादेव, कोटमाहेश्वरी तक गया था। लेकिन इस वक़्त सिर्फ एक दुकान खुली थी जहाँ चाय पानी पी सकते थे। पहाड़ी आदमी था तो सीधे सादे शब्दों में उसने बताया कि मंदिर के पास ‘श्री हंस’ वाली धर्मशाला में रहो और खाना मैं बना दूंगा। सौ रुपये के भाड़े पर हमको धर्मशाला में एक बेहतरीन कमरा मिल गया था जिसमें तीन बेड लगे हुए थे। हमारे पास एक पूरी शाम थी यहाँ घूमने के लिए और पूरी रात इस जगह की शांति महसूसने के लिए।
यहाँ पहुंचकर पिछले चार पांच दिन की थकावट का आभास हो रहा था। थोड़ी सी सहजता हुई तो अपने आपसे सवाल पूछने लगा कि आखिर यहाँ आया क्यों? क्यों अचानक कदम फिर इस दिशा में मुड़ गए? फिर वही अवसाद और उदासी। जिस कमरे में हम थे उसकी खिड़की से मंदिर का प्रांगण दिखता था और दरवाजा नदी की ओर खुलता था। दरवाजा खोलते ही नदी का इतना तीव्र शोर सुनाई देता था कि दिल सहम सा जाता था। मंदिर में पूजा, दर्शन सब कुछ कर लिया और शाम को बहार की ओर खाना खाने निकल लिए जहाँ बात करके आये थे। इस वक़्त तक यहाँ घुप्प संन्नाटा पसर चुका था। रात के वक़्त इस जगह इस मंदिर के दर्शन करना अपने आपमें ही एक विशेष अनुभव था। देर तक हम मंदिर के आगे बने खोखों पर बैठे रहे; नापतोल करते रहे कि इस आपदा से यहाँ क्या-क्या बना और क्या क्या बिखरा। नींद नहीं आ रही थी; और मैं कुछ लिखने की कोशिश कर रहा था। कल सुबह वापसी भी थी, इस सफर के अनुभव और स्मृतियों की जुगाली चल रही थी ; और थोड़ी देर में आंखें मुंदने लगीं।
रात के तकरीबन दो बजे होंगे तो अचानक महसूस हुवा जैसे कोई मुझको जगा रहा हो। मैंने हल्की सी रौशनी की तो कोई नज़र नहीं आया। लेकिन पतानहीं ऐसा लगा जैसे कोई बुला ही रहा हो। दरवाजा खोलने पर नदी का डरावना शोर सुनाई देता था तो खिड़की से बाहर देखने का प्रयास किया। वहां से सीधा मंदिर का आँगन दिखता था। वहां लाइट जल रही थी और रात में के मंदिर के बाहर लगने वाले पूजा के सामान के खोखे दिख रहे थे। एकदम निरभ्र, नीरस और निर्जन अहसास। मैंने टाइम देखा तो दो बजकर पाँच मिनट हुए थे। साफ़ सितारों वाले आसमान से जमकर पाला गिर रहा था। कड़ाके की ठण्ड थी बाहर,,,,, नींद एक तरह से टूट सी गयी थी। और फिर वही डिप्रेशन,,,,,,सब कुछ बीता गुजरा आँखों के सामने फिल्म की तरह चल रहा था। वही सब कुछ जिससे भागकर यहाँ आया था। कालीमठ की भूमि वैसे भी रहस्यों की भूमि है; इसलिए हर बार हम यहाँ का आंकलन विज्ञान के चश्में से नहीं कर सकते। वैसे मैं व्यक्तिगत रूप से आस्था और विज्ञान को अलग अलग ही मापता हूँ।
नहीं रहा गया और मैंने मन बना लिया ये जो आवाज मुझे सुनाई दे रही है ये अंतर्मन का सम्बोधन है या इस जगह का सम्मोहन लेकिन इसके पीछे जाना जरूर चाहिए। मैंने खुद को रजाई से बाहर निकाला, अपनी घुटनों तक वाली लम्बी लैदर जैकेट डाली, जूते पहने , एक शाल भी ओढ़ ली और चुपके से दरवाजा खोलकर बाहर निकल आया। इस वक़्त जो मंदाकिनी का खौफनाक शोर था वो किसी को भी डराने के लिए पर्याप्त था। ठंडा इतना था कि शरीर की एक एक नस इसको महसूस कर सकती थी। मैं सीढ़ियां उतरता रहा और पतानहीं खुद की चेतना से या किसी सम्मोहन से मंदिर के प्रांगण मैं पहुँच गया।
मंदिर का दर्शन करने जैसी कोई फीलिंग नहीं थी अंदर से ; बस खुद से जो जूझन चल रही थी उससे बाहर आना था। किनारे पर खड़े एक खोखे पर मैं बैठ गया और यहाँ से मध्य रात्रि में इस जगह की खूबसूरती और रहस्य को आत्मसात करने की कोशिश कर रहा था। चटख खिला चाँद और पहाड़ों पर खड़े पेड़ों की श्रृंखला, मंदाकिनी का रौद्र नाद , बरसता पाला और चारों और घुप्प सन्नाटा। मैंने अपने पैर सिकोड़े और सर घुटनों मे रखकर उस एकांत को जीने लगा। और कुछ ही पलों में मुझे अंदेशा हो गया था कि मुझे जो कुछ सुनाई दे रहा था वो मेरा वहम नहीं था बल्कि एक सच था।
अचानक मुझे लगा कोई मेरी तरफ आ रहा है। मंदिर की सीढ़ियों की ओर से। और थोड़ी देर बाद मैंने अपने कंधे पर किसी हाथ का स्पर्श महसूस किया। मुझे कोई डर नहीं महसूस हुवा और न ही मैंने सर उठाया। हाथ की पकड़ थोड़ी मजबूत सी हुई और मुझे झंझोड़ने की कोशिश होने लगी। मैंने चेहरा उठाया तो सामने दो चेहरे खड़े थे। एक बूढ़ी महिला जो तकरीबन सत्तर साल से अधिक की रही होगी और उसका हाथ थामे एक एक आठ दस साल की बच्ची। एक बारगी एक को तो ये लगा जैसे कोई सपना है। बच्ची के गाल सर्दी से लाल दिख रहे थे। बुढ़िया के पैरों में बहुत पुरानी चप्पलें थीं और बच्ची ने जूते पहने हुए थे। एकटक उनको देखता रहा मैं जैसे खुमारी मैं कोई सपना देख रहा होऊं। और फिर बुढ़िया ने ही संवाद शुरू किया। क्यों दुखी हो? इंसान का जीवन मिला है तो हार कैसी? तू अकेला तो नहीं है न। तुझसे जुड़े कितने लोग हैं? तेरे माँ-बाप, दोस्त, रिश्तेदार सभी हैं तो उनको दुखी करने का अधिकार तुमको किसने दिया? किस हक़ से तूने खुद को दुखी किया है? तूने कैसे समझ लिया कि तुझ पर सिर्फ तेरा अधिकार है? बहुत कुछ ऐसा था उस सम्बोधन में जैसे बचपन में ‘उचाणा’ रखकर किसी विशेष व्यक्ति पर देवता प्रकट होता और वो कुछ बोलता जिसको सभी तसल्ली से सुनते और मानते। मैं भी उस वृद्ध महिला को इसी सम्मोहन के साथ देख रहा था। लेकिन यहाँ मेरा कोई सवाल नहीं था लेकिन सारे जवाब उसके सवालों में ही थे। इस हक़ से मुझे कभी किसी ने नहीं डांटा था। और मैं उसके एक एक शब्द के साथ अपराधबोध में धंसता चला जा रहा था। उस रात की खामोशी में वो एक एक शब्द कानों से मन तक ऐसा उतरा कि कभी हट नहीं पाया। कई महीनों से दिल पर जो भी बोझ था वो धीरे धीरे शिथिल सा पड़ने लगा था। कई चेहरे, कई भाव और कई घटनायें चलचित्र की तरह मन के दृष्टिपटल पर आने लगीं थीं।
न जाने क्या था उस आवाज में, बहुत कुछ दर्दीला और बहुत कुछ उत्तेजित करने जैसा। मैंने जैसे खुद पर नियंत्रण खो सा दिया और मेरी आँखों से आँसू बहने लग गए। उस बियाबानी सन्नाटे में उस बुढ़िया की गोद में सर रखकर जो मैं रोया तो पतानहीं क्या क्या उसके साथ पिघला और बह गया। अजीब सी हालत थी; रात के तीन बजे इस कड़ाके की ठण्ड में मैं ऐसा बचपना कर रहा था। लेकिन उस वृद्ध महिला ने तब तक मुझे अपने सीने से लगाए रखा मेरे बालों में उँगलियाँ फंसाकर जब तक मैं पूरी तरह से खाली नहीं हो गया। एकदम खाली, शांत और थका हुवा। एक ऐसा उद्वेग अभी अभी छूकर गया था जो न जाने कबसे एक ज्वालामुखी का रूप लेता जा रहा था।
बहुत बाद में ख़याल आया कि इनके साथ तो एक छोटी बच्ची भी है। मैंने संयत होकर उस बच्ची को पास बुलाया और गोद में अपनी शाल के नीचे बिठा दिया। वृद्ध महिला भी थोड़ा संयत हुई और प्रवाह में बोलने लगी। दुःख-सुख भी जिंदगी मैं तभी है जब इंसान की जिंदगी है, अगर जिंदगी ही नहीं तो इंसान क्या करे। अंत में जो बात उसने कही उसने अंदर तक झकझोर दिया। इस साल की आपदा में पूरा परिवार ख़त्म हुवा है। तीन चार महीनों पहले ही भूस्खलन में बेटे बहुयें, उनके बच्चे, घर, मकान कुछ नहीं बचा। बस ले देकर ये बच्ची है जो सदमें में अपनी आवाज भी खो चुकी है, बस इशारों में अपनी बात करती है, समझती है। वृद्ध महिला की बातों से मैं समझ सकता था कि इन्होने सम्पन्नता जरूर देखी होगी। जीना तो पड़ता है; पहले खुद के लिए और अब किसी तरह इस बच्ची के लिए। अब रोने की बारी उनकी थी और वो भी मेरे घुटने पर सर रखकर बहुत रोयीं। सभी के लिए जो उन्होंने खोया है। बोलतीं रहीं कि नींद नहीं आती है इसलिए रात बेरात ऐसे ही चल पड़ती हैं। मैं भी भरपूर उनको सुनता रहा; जब तक उनकी गठरी भी खाली नहीं हो गयी। सुबह के साढ़े चार बज चुके थे और ऊपर की तरफ से किसी के खांसने की आवाज भी सुनाई देने लगी थी; जो कि शायद पुजारी जी की रही होगी। बच्ची मेरी गोद में सो गयी थी। महिला ने उसको उठाने की कोशिश की तो उसने मुझे और जकड लिया। इस पूरे संवाद की वो एक मूक दर्शक थी। मैंने अपनी शाल उसको ओढ़ा दी; मेरी जेब में जो कुछ भी था मैंने उस बच्ची के हाथों में रख दिया और उनको भेजने के इरादे से उठ खड़ा हुवा। मंदिर के गेट पर पहुंचकर महिला ने मुझे रोक दिया और वापस जाने को कहा। और अंत में ”जा म्ये लाटी” राज़ी रै वाला आत्मीय सम्बोधन,,,,, वो नदी पार कहीं टैंट में रहती हैं जो आपदा पीड़ितों के लिए लगाया है। बच्ची के ठन्डे हाथों को सहलाकर मैं वापस धर्मशाला के ओर चल दिया। देख रहा था उनका नदी पार करना और सीढ़ियां चढ़ते हुए ओझल हो जाना। ,,,,,, इस वक़्त मुझे मंदाकिनी की लहरों के शोर से डर नहीं महसूस हो रहा था। मैंने खुद को दरवाजे से अंदर किया और तमाम अंतर्द्वंदों को आत्मसात कर अपने बिस्तर पर पहुँच गया। दोनों मित्र अभी भी सो ही रहे थे।
सुबह जब हम वापसी के लिए निकल रहे थे तो मैंने दोनों को खोजना चाहा। काफी तलाश किया। पल के दोनों तरफ, बाज़ार की ओर कि क्या पता उस बच्चे की कुछ मदद कर सकूं। लेकिन उनका कोई पता नहीं चला। चाय पीने के लिए फिर उसी दूकान में गए तो दुकानदार से पूछा। वो काफी देर तक मुझे घूरता रहा और फिर हंस दिया ,,,, ऐसा भी कहीं होता है बल। आधी रात में माता के मंदिर सामने ,,,,क्या बात कर दी भै आपने। यहाँ ऐसे कोई भी लोग नहीं हैं कहीं भी। ,,,,,सच कहूँ तो मैं विस्मृत नहीं हुवा लेकिन इतनी समझ थी कि जो हुवा मेरी चेतना में ही हुवा था। और फिर कई बार आँखों मैं वो सब नज़ारे भरकर हम वापस चल दिए।
मेहंदी हसन साहब की ग़ज़ल का एक शेर है ‘इक उम्र से हूँ लज़्ज़त-ए-गिर्या से भी महरूम, ऐ राहत-ए-जाँ मुझ को रुलाने के लिए आ’। रोने की लज्जत क्या होती है ये रोने वाला ही जानता है। छोटा बच्चा सिर्फ अपनी ज़िद से नहीं रोता, बल्कि कहीं न कहीं रुदन के साथ जो रिदम बनता है उसको महसूस करते हुए एक धुन में रोता है। लेकिन ये भी सच है कि रोने के लिए बहाने से ज्यादा मजबूत सहारा चाहिए। रोने वाला तो खाली हो जाता है लेकिन जिस कंधे पर वो रोया है वो भरता जाता है, एक मजबूती से, एक आत्मविश्वास से। और फिर अनायास ही चेतना ने कहा मजबूत बन, हो सके तो कमजोर दिलों के लिए कांधा बन और निकल पद जिंदगी की निरंतरता में,,,,,।
इस सफर का सबसे बड़ा हासिल ये था कि इसमें मैंने खुद को पा लिया था। जिंदगी परत दर परत खुलती चली गयी। सिलसिले बनते रहे। फिर बेहतर डिवीजन से मास्टर्स कम्प्लीट की, पीएचडी के लिए आई आई टी दिल्ली और नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ़ सोलर एनर्जी, का रुख किया, एकेडेमिक्स, रिसर्च, इंडस्ट्री और अब फाइनेंस तक का सफर बेफिक्री से तय किया जो अब तक सतत जारी है। इस घटना के बाद दरअसल डर, ख़त्म हो गया था, चाहे वो भावनात्मक हो या सिर्फ पाने- खोने की कवायद,,,,,।
और फिर सुबह जब वापसी की तैयारी करने लगे तो मैंने उसी अंदाज में दोस्तों को शेर’ सुनाये जिनको मुझसे सुने हुए उनको तकरीबन दो साल हो गए थे। मैं एकदम बदलाव सा महसूस कर रहा था; बहुत सारी पॉजिटिविटी के साथ। पूरे सफर मैं हंसी आ रही थी कि किन बेतुकी और छोटी छोटी बातों को लेकर इतना संजीदा हुवा जा रहा था। मजे की बात ये थी कि जब हम ट्रिप पर जा रहे थे तो अमूमन मैंने इस साल ड्राप करने का फैसला ले ही लिया था; और इस वक़्त ऐसा लग रहा था कि कल से ही परीक्षायें क्यों न शुरू हो जायें, देख लेंगे। और एक बार फिर वापसी का निर्णय विद्यापीठ से कुंड तक पैदल जाने के फैसले से किया जिसके लिए दोनों रास्ते भर मुझे गालियां देते रहे। वापस आने का माहौल यात्रा शुरू करने से भी बेहतर था ; हम वापस आ रहे थे और लिखते हुए बिलकुल ‘जिंदगी न मिलेगी दोबारा’ के तीनों दोस्तों की तरह ,,,,, ”दिलों मैं अपनी बेताबियाँ लेकर चल रहे हो तो ज़िंदा हो तुम ,,,,,,,
सालों बाद एक बार जब मैं दिल्ली से छुट्टियों में अपने घर गया तो मैंने माँ से इस घटना का जिक्र किया था। तो माँ का सीधा सीधा सम्बोधन यही था कि कहीं काली माँ उस बच्ची के रूप में तुझसे मिलने न आई हो। और ये एक ऐसा निष्कर्ष था जिस पर कोई तर्क नहीं किया जा सकता था। फिर चाहे मेरी शादी हो या कंदर्प’ का पैदा होना हो सपरिवार कालीमठ जाने का सिलसिला जारी है और आगे भी जारी रहेगा। हाँ , केदारनाथ आपदा के बाद नए कालीमठ में नदी पार करते हुए मैं ठिठक ही जाता हूँ , और खोजने लगता हूँ कि क्या पता कुछ हो जो मैं उस कड़ी मे जोड़ सकूं जिससे मैं खुद जुड़ा हूँ।
आज भी जब मैं इस वाकये को याद करता हूँ तो मन सीधे इसको मानस के एक प्रसंग से रिलेट करता है ,,,,,रामचरित मानस’ (अयोध्याकाण्ड) का सबसे बेहतरीन सामूहिक संवाद उस वक़्त का है जब भरत, श्री राम को मनाने पहुँचते हैं। गुरु वसिष्ठ, राजा जनक, राम, भरत अपने अपने तरीकों से क्रमशः नीति, भक्ति, ज्ञान और धर्म पर अपना अपना पक्ष रखते हैं। थिएटर के लिए इससे बेहतर ‘प्ले’ कोई हो नहीं सकता। सबके अपने अपने तर्क हैं और इतने सबल हैं कि आप पूरे प्रक्रम में सभी की तरफ होते हैं। ज्ञान (सरस्वती) प्रेम और भक्ति (भरत) के सम्मुख समर्पण कर देते हैं। कह सकते हैं कि अंत में सत्य जीतता है लेकिन इस विषय में सभी के तर्क उनके अपने अपने सत्य पर आधारित हैं। और “‘सील सकोच सिंधु रघुराऊ। सुमुख सुलोचन सरल सुभाऊ॥” रामजी की यह बान है कि वे प्रेम को पहचानकर नीति का पालन करते हैं।,,,,,,, आस्था, प्रेम और भक्ति के भाव ज्ञान के तर्कों से परे रहते हैं ,,,,,
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ध्रुव बिस्वासु अवधि राका सी। स्वामि सुरति सुरबीथि बिकासी॥
राम पेम बिधु अचल अदोषा। सहित समाज सोह नित चोखा॥
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नीति प्रीति परमारथ स्वारथु। कोउ न राम सम जान जथारथु॥
बिधि हरि हरु ससि रबि दिसिपाला। माया जीव करम कुलि काला।
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नीति, प्रेम, परमार्थ और स्वार्थ को श्री रामजी के समान यथार्थ (तत्त्व से) कोई नहीं जानता। ब्रह्मा, विष्णु, महादेव, चन्द्र, सूर्य, दिक्पाल, माया, जीव, सभी कर्म और काल ,,,,,
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(संस्मरणों में अमूमन लोग अपनसे सम्बद्ध उन घटनाओं का जिक्र करते हैं जहाँ उनसे सम्बद्ध कोई पॉजिटिव , या बहादुरी वाला कारनामा हो। मैं इस संस्मरण में वो लिख रहा हूँ जिसको लोग कमजोरी समझ सकते हैं।)
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-डॉ ईशान पुरोहित
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Very nice 👍
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